पूजा के अधिकांश मंदिर केवल दो चरित्रों के ही बने हैं – श्रीराम के और हनुमान जी के। चूँकि सीताजी श्रीराम की पत्नी थी, इसलिए उनके साथ मंदिर में सीताजी भी हैं। अन्यथा दुर्गा और काली माँ जैसे स्वतंत्र मंदिर सीताजी के नहीं हैं। लक्ष्मणजी को भी कहीं-कहीं मंदिरों में स्थान मिला, क्योंकि वे श्रीराम के साथ वन गए थे। हमें यहां यह सोचना चाहिए कि क्या कारण है कि ”रामचरितमानस में इतने सारे लोगों के होते हुए भी केवल हनुमानजी के ही मंदिर बने और उन्हें स्वतंत्र रूप से इतने बड़े भगवान का दजऱ्ा दिया गया। आइए श्री हनुमान चरित्र के उन पहलुओं का विचार करें जो आज भी हमें सफलता की पे्ररणा और संदेष देते हैं।
हनुमानजी में कहीं भी अपनी वास्तविकता को छिपाने का प्रयास नहीं मिलता। उन्हें जहाँ भी मौक़ा मिलता है या वे जहाँ भी ज़रूरी समझते हैं, अपने इस वानरपन की खुलेआम घोषणा करते हैं।
खायऊँ फल प्रभु लागी भूखा। कपि सुझाव ते तोरेऊँ रूखा।।
हे महाराज, मुझे भूख लगी थी, इसलिए मैंने फल खाए। चूँकि मैं वानर हूँ और वानर का स्वभाव ही पेड़ों को तोड़ना होता है, इसीलिए मैंने आपका बाग उजाड़ा। इसके बावजूद वहां वे खुद को विनम्रता के साथ महज़ एक छोटे-से वानर के रूप में घोषित कर रहे हैं।
यहीं हमें यह बात देखनी है कि जब व्यä विस्तविकता को स्वीकार करके उससे मुä पिने के लिए कुछ कर ने लगता है, तो उसके अंदर शä किी ज्वालाएँ फूटने लगती हैं। यही स्वीकारोä अित्मविश्वास का आधार बन जाती है, आत्मशä कि कारण बन जाती है। यह पलायन कराने वाली कमज़ोरी नहीं रह जाती।